शबो रोज़ अपने संवारा करूँ मैं...
मुहम्मद मुहम्मद पुकारा करूँ मैं....
लबों पे सजा कर दुरूदों के गजरे...
यूँ ही ज़िन्दगानी गुज़ारा करूँ मैं....
जो पूछे कोई तेरी मंज़िल किधर है...
तो तैबा की जानिब इशारा करूँ मैं...
है वक़्ते नज़ा मेरे दिल की तमन्ना...
रुखे वददुहा का नज़ारा करूँ मैं....
जो ज़िंदा न माने तुझे मेरे आक़ा...
उसे कैसे अपना गवारा करूँ मैं...
ये दिल-ये जिगर क्या, ये जां-मालो ज़र क्या?
ये सब तेरे क़दमों पे वारा करूँ मैं....
लहद में जो तशरीफ़ लाएंगे आक़ा...
*आफ़ताब* उनका चेहरा निहारा करूँ मैं...
✍🏻 :- आफ़ताब आलम क़ादरी रज़वी
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