*🤲🏻वसीला🤲🏻*
तमाम बातिल फिर्क़े वहाबी दयाबना जो वसीला के मुन्किर है अल्लाह की बारगाह में वसीले को शिर्क़, हराम कहते है हालांकि साबित नहीं कर सकते। आज उनके ताबूत में आख़री कील ठोंक रहा हूँ हदीस ए पाक मुलाहिज़ा फरमाए ।
हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़िअल्लाहु ताअला अन्हु ने फरमाया " खैयबर के यहूदी घतफान क़बीले से बर सर ए पैकर रहा करते थे (यानी लड़ते रहते थे) पस जब भी दोनों का सामना हुआ यहूदी शिकस्त खा गए फिर यहूदियों ने इस दुआ के ज़रिए पनाह मांगी।
"ऐ अल्लाह हम तुझसे उम्मी नबी मुहम्मद मुस्तफा ﷺ के #वसीले से सवाल करते हैं जिन्हें तो तूने आख़री ज़माना में हमारे लिए भेजने का हमसे वादा फरमाया है कि इन (दुशमनो) के मुक़ाबले में हमारी मदद फरमा"
रावी कहते है:- पस जब भी वो दुश्मन के सामने आए उन्होंने यही दुआ मांगी और घतफान क़बीला को शिकस्त दी लेकिन जब हुज़ूर नबी ए क़रीम ﷺ मब'ऊस हुए तो उन्होंने आपﷺ का इनकार किया । इसपर अल्लाह ताअला ने ये आयत उतारी जिसका स्कैन पेज दे रहा हूँ।
तर्जुमा:-
और जब उनके पास अल्लाह की किताब (क़ुरआन) आई जो उनके साथ वाली किताब (तोरात) की तस्दीक फरमाती और इससे पहले वो इसी नबी के वसीले से काफिरो पर फतह मांगते थे तो जब तशरीफ लाया उनके पास वोह जाना पहचाना उससे इनकार कर बैठे तो अल्लाह की लानत इनकार करने वालों पर।
(📗सूरह अलबक़रह, आयत 89)
हालांकि की इससे पहले ऐ मुहम्मदﷺ ! आपके वसीले काफिरो पर फतह-याबी की दुआ मांगते थे।
(📗इमाम हाकिम, अलमुस्तदरक़, जिल्द:02, सफा:316,
हदीस:3101)
(📗इब्ने क़सीर,तफ्सीरुल क़ुरआन उल अज़ीम, जिल्द:01,
सफा:326)
और भी बहुत से मुहद्दिसीन व मुफस्सिरीन ने इस हदीस को लिखा है,
अब खुद को अहलुल हदीस कहलाने वाले गूगल मुक़ल्लिदीन क़ुरआन ओ हदीस से साबित करें की वसीला शिर्क़ या हराम है।
जबकि क़ुरआन की आयत और इस हदीस से साबित हुआ जब अहले यहूद भी आक़ाﷺ के वसीले से कुफ्फार ओ मुशरिक़ीन से फतह पाने की दुआ करते तो अल्लाह अज़्ज़वजल उनके वसीले से दुआ क़ुबूल कर लिया करता है और अलहम्दुलिल्लाह हम तो मुसलमान है हमारी दुआएँ आक़ा अलैहिस्सलाम के वसीले से क्यों न क़ुबूल होंगी। वो तो आक़ा अलैहिस्सलाम की जलवागरी के पहले का आलम था तो अब भला ये कैसे शिर्क़ हो सकता है....???
जो दलील मैंने पेश की है इस दलील को वहाबी देवबंदी भी काट नहीं सकता क्योंकि इमाम इब्ने क़सीर को ये लोग भी मनाते हैं।
इश्क़ ए मुस्तफा छोड़ जो पढ़ते हैं बुखारी,
आता है बुख़ार उन्हें बुख़ारी नहीं आती
📑स्कैन पेज👇🏻
तमाम बातिल फिर्क़े वहाबी दयाबना जो वसीला के मुन्किर है अल्लाह की बारगाह में वसीले को शिर्क़, हराम कहते है हालांकि साबित नहीं कर सकते। आज उनके ताबूत में आख़री कील ठोंक रहा हूँ हदीस ए पाक मुलाहिज़ा फरमाए ।
हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़िअल्लाहु ताअला अन्हु ने फरमाया " खैयबर के यहूदी घतफान क़बीले से बर सर ए पैकर रहा करते थे (यानी लड़ते रहते थे) पस जब भी दोनों का सामना हुआ यहूदी शिकस्त खा गए फिर यहूदियों ने इस दुआ के ज़रिए पनाह मांगी।
"ऐ अल्लाह हम तुझसे उम्मी नबी मुहम्मद मुस्तफा ﷺ के #वसीले से सवाल करते हैं जिन्हें तो तूने आख़री ज़माना में हमारे लिए भेजने का हमसे वादा फरमाया है कि इन (दुशमनो) के मुक़ाबले में हमारी मदद फरमा"
रावी कहते है:- पस जब भी वो दुश्मन के सामने आए उन्होंने यही दुआ मांगी और घतफान क़बीला को शिकस्त दी लेकिन जब हुज़ूर नबी ए क़रीम ﷺ मब'ऊस हुए तो उन्होंने आपﷺ का इनकार किया । इसपर अल्लाह ताअला ने ये आयत उतारी जिसका स्कैन पेज दे रहा हूँ।
तर्जुमा:-
और जब उनके पास अल्लाह की किताब (क़ुरआन) आई जो उनके साथ वाली किताब (तोरात) की तस्दीक फरमाती और इससे पहले वो इसी नबी के वसीले से काफिरो पर फतह मांगते थे तो जब तशरीफ लाया उनके पास वोह जाना पहचाना उससे इनकार कर बैठे तो अल्लाह की लानत इनकार करने वालों पर।
(📗सूरह अलबक़रह, आयत 89)
हालांकि की इससे पहले ऐ मुहम्मदﷺ ! आपके वसीले काफिरो पर फतह-याबी की दुआ मांगते थे।
(📗इमाम हाकिम, अलमुस्तदरक़, जिल्द:02, सफा:316,
हदीस:3101)
(📗इब्ने क़सीर,तफ्सीरुल क़ुरआन उल अज़ीम, जिल्द:01,
सफा:326)
और भी बहुत से मुहद्दिसीन व मुफस्सिरीन ने इस हदीस को लिखा है,
अब खुद को अहलुल हदीस कहलाने वाले गूगल मुक़ल्लिदीन क़ुरआन ओ हदीस से साबित करें की वसीला शिर्क़ या हराम है।
जबकि क़ुरआन की आयत और इस हदीस से साबित हुआ जब अहले यहूद भी आक़ाﷺ के वसीले से कुफ्फार ओ मुशरिक़ीन से फतह पाने की दुआ करते तो अल्लाह अज़्ज़वजल उनके वसीले से दुआ क़ुबूल कर लिया करता है और अलहम्दुलिल्लाह हम तो मुसलमान है हमारी दुआएँ आक़ा अलैहिस्सलाम के वसीले से क्यों न क़ुबूल होंगी। वो तो आक़ा अलैहिस्सलाम की जलवागरी के पहले का आलम था तो अब भला ये कैसे शिर्क़ हो सकता है....???
जो दलील मैंने पेश की है इस दलील को वहाबी देवबंदी भी काट नहीं सकता क्योंकि इमाम इब्ने क़सीर को ये लोग भी मनाते हैं।
इश्क़ ए मुस्तफा छोड़ जो पढ़ते हैं बुखारी,
आता है बुख़ार उन्हें बुख़ारी नहीं आती
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