*ज़ईफ़ हदीस*
_हदीस का मतन (text) ज़ईफ़ नहीं होता बल्कि उसकी सनद ज़ईफ़ होती है, या’नि तीन, चार या एक या दो रावियों में से किसी एक रावी में कोई नुक्स या खामी पा जाए तो हदिस ज़ईफ़ कहलाती है उलमाए किराम ने 39 किस्में बयान की हैं ज़ईफ़ हदीसों के और कुछ उल्माओं के मुताबिक़ 79 किस्में हैं।_
*किसी ज़ईफ़ हदीस को सुन कर यह कह देना कि यह ज़ईफ़ है और उसे सिरे से खारिज कर देना या रद्द कर देना उसूले हदीस में इस से बड़ी जहालत की बात हो ही नहीं सकती, और यह ऐसी बिदअत है जो सिर्फ इस जमाने के so called आलिमों और मुल्ला फैला रहे हैं। जिन्होंने उसूले हदीस की ABCD भी नहीं पढ़ी है और यह लोग सहीह सहीह (Authentic) का राग अलापते रहते हैं। अगर कोई हदीस इनके अक़िदे के खिलाफ हो तो वोह इनके लिए ज़ईफ़ हो जाती है, किसी हदीस में ज़मते मुस्तफ़ा صَلَّىاللهتَعَالىٰعَلَيْهِوَالِهوَسَلَّم की बात हो या अज़मते सहाबाए किराम رِضْوَانُاللهِتَعَالىٰعَلَيْهِمْاَجْمَعِيْنَ की बात हो या अज़मते औलियां अल्लाह رَحْمَةُاللهِتَعَالىٰعَلَيْهِمْاَجْمَعِيْن कि बात हो तो वोह इनके नजदीक ज़ईफ़ हो जाती है। ऐसे लोगों के ईमान ही ज़ईफ़ होते हैं।*
*आओ हम मिसाल से समझते हैं कि ज़ईफ़ हदीथ क्या है :*
_पहली बात यह कि हदीस का मतन ज़ईफ़ नहीं होता बल्कि उसकी सनद ज़ईफ़ होती है। हदीस कि रिवायत करने वालों में कोई नुक्स हो, जैसे उसने कभी ज़िंदगी में झूठ बोला हो, उसको कभी कभी झूठ बोलते पाया गया हो, या उसकी याददास्त कमज़ोर हो वगैरह। अगर किसी रावी का कभी कभी मज़ाक में ही सही झूठ बोलना साबित हो तो उससे रिवायत की गयी हुई हदीस इमाम के नज़दीक ज़ईफ़ हो सकती है। इस लिए इमामने उसको “ज़ईफ़” लिख दिया तो आजके बिदअती लोग उसको सिरेसे हे नकार देते हैं यह कह कर के यह ज़ईफ़ हदीस है। यह लोग हर ज़ईफ़ हदीस को मोज़ू (unacceptable) समझ लेते है।_
_मोज़ु भी हदीस की एक किस्म है। अगर हदीस मोज़ू होती तो वोह इमाम जिन्होंने हदीस को ज़ईफ़ लिखा वोह लिखते ही नहीं बल्कि उससे मोज़ू हदीस ही कह देते। ज़ईफ़ इस हदीस को कुछ हद तक कुबूल किया जा सकता है।_
*मिसाल अहादिसे ज़ईफ़ :*
_(1) ज़ईफ़ और मोज़ू हदीस को कोई बीमारी समझ लो, बिमेरी भी इंसान के बदन में के एक नुक्स है जैसे बुखार, झुखाम,कैंसर, टी.बी वगैरह या’नि हर बीमारी एक जैसी नहीं होती। किसी ज़ईफ़ हदीस में सिर्फ ज़ुखाम जितना नुक्स होता है किसी में बुखार जितना निक्स होता है तो किसी में सरदर्द जितना नुक्स होता है।_
_अब मोज़ू हदीस वोह है जो कैंसर (या कोई ऐसी बिमारी के जिसका इलाज हकीमों के पास न हो जैसे एक हे H.I.V) है जिसका इलाज़ नहीं और जो लास्ट दर्जे का नुक्स है। तो क्या हम ज़ुखाम और कैंसर के मरीज़ को एक जैसा समझते हैं? क्या मरीज़ के सर में हल्का सा दर्द हो और किसी मरीज़ को Brain tumor हो वोह दोनों यकसा हैं? क्या तुम दोनों मरीजों को एक जैसी ट्रीटमेंट दोगे? नहीं ना, तो हर ज़ईफ़ हदीस को (बुखार के मरीज़ की तरह) मोज़ू हदीस की तरह (कैंसर के मरीज़ की तरह) क्यूं कहा (treat-इलाज़) जाता है?_
*तो नादानों हर ज़ईफ़ हदीस और मोज़ू हदीस को एक जैसा समझ कर “ज़ईफ़” हदीस कह कर रद्द कैसे कर सकते हो? और सहीह-सहीह की तस्बीह क्यूँ पढ़ते रहते हो? पहले अहादीस के उसूलों को समझों। जसी तरह ज़ुज्खाम के मरीज़ का इलाज़ हो सकता है वैसे ही बेशुमार अहादीस ऐसी होती है जो किसी इमाम के पास ज़ईफ़ है मगर किसी दुसरे इमाम के पास किसी और तुर्क (ज़रिये) से आ कर वोह सहीह या हसन हदीस हो सकती है। सहीह और हसन अव्वल दर्जें की अहादीस हैं जिनको अव्वल दर्जा मिलेगा, ज़ईफ़ हदीस हसन हदीस के बाद वाले दर्जे की हदीस है तो उससे उस को उस के बाद दर्जा मिलेगा।*
*दूसरी मिसाल अहादिसे ज़ईफ़ :*
_(2) दो इलाज़ करने वाले शख्स है अब्दुल्लाह और समीर। अब्दुल्लाह के पास M.D या M.B.B.S की डिग्री है और समीर के पास कोई भी डिग्री नहीं है, मगर समीर भी मरीजों का इलाज़ कर रहा है। अब एक सरदर्द का मरीज़ अब्दुल्लाह के पास आ गया और सने मरीज़ को एक दवाई दी पेरासिटामोल, अब वही मरीज़ यकसा तकलीफ के लिए समीर के पास गया जो Qualified नहीं है मगर उसे इलाज़ पता है कि क्या करना चाहिए। तो दवाई अब्दुलाह और समीर ने एक ही दी मगर एक के पास डिग्री है और और दुसरे के पा नहीं है। तो जिसके पास डिग्री नहीं है वोह ज़ईफ़ है और जिसके पास डिग्री है वोह सहीह है। अब समीर Qualified नहीं है तो उसकी दी हुई दवाई ज़ईफ़ हो गई, अब्दुल्लाह Qualified है तो उसकी दवाई सहीह हो गई, हालां कि दवाई दोनों की यकसां है।_
_उसी तरह हदीस ज़ईफ़ हो जाती है क्यों कि उसके रावी के पास डिग्री नहीं है (सहीह हदीस की शर्तों में से किसी शर्त पर वोह खरा नहीं उतरता तो वोह Unqualified हो गया) मगर हदीस वोह भी सहीह रिवायत कर रहा है।_
*बिना डिग्री वाला एउर ज़ईफ़ रावी की वजह से दवाई और रिवायत ज़ईफ़ हो गई मगर दावा और हदीस दोनों एकदम सहीह दी। एक के पास डिग्री थी और वोह Qualified था तो उसे M.B.B.Sकह दिया और जिसके पास डिग्री नहीं थी जो Unqualified तो उसे Comounder कह दिया। वैसे ही जिस रावी में कोई ऐब नहीं था (जो सहीह अहादीस की शराईत पर पूरा उतरता था) उसकी रिवायत की गई हुई हदीस सहीह होगी और जो सहीह या हसन अहादीस की शर्तों पर पूरा नहीं उतरता था उसकी रिवायत की गई हदीस ज़ईफ़ हो गई।*
_अब एक और शख्स है सफ्वान। इतना Unqualified है कि उसने कभी किसी डॉक्टर से ये भी नहीं सुना के कौनसी तकलीफ में कौनसी दवाई दी जाए और वोह बिलकुल गलत दवाई दे रहा है, तो उसकी दवाई उस दर्जे की ज़ईफ़ हो गई कि वोह मोज़ू होगी जिससे रद्द करने में भलाई है। उसे कुबूल नहीं किया जा सकता। या’नि ऐसी कोई रिवायत हो जिसमे हलाल और हराम का मस’अला हो या जसी रिवायत में अल्लाह तआला की सिफात जिस पर ईमान और कुफ्र का मदार है वोह मोज़ू हदीस कहलाएगी। उसे कुबूल नहीं किया जा सकता। यह सब उसूले हदीस कि बाते है जिसे हमें समझना चाहिए और अपने बुरे अकीदे को बचाने के लिए ऐसे ही हवा में बातें नहीं करनी चाहिए।_
*तीसरी मिसाल अहादिसे ज़ईफ़ :*
_(3) मिसाल के तौर पर स्कूल या कोलेज के रिजल्ट और उसूले हदीस को ले लो। क्लास में जो बच्चों का रिजल्ट 90 से 100 मार्क्स तक आया उनको A+ ग्रेड मिला, उसूले हदीस में वोह हदीस सहीह हो गई उन्हें A+ ग्रेड मिला। दुसरे बच्चों को 70 से 89 तक मार्क्स मिले तो 100 में से उसको A ग्रेड मिला, उसूले हदीस के ग्रेड में वोह हदीस हदीसे हसन हो गई। अब जिन बच्चों को 69 से 35 (35 Passing Marks) तक मार्क्स मिले उनको B+, B, C,D ग्रेड मिले, या’नि यह सब उसूले हदीस में हदीसे ज़ईफ़ हो गई। 70 से 35 मार्क्स वाले बच्चों को A+ और A ग्रेड वाले बच्चों से कम मार्क्स तो मिले मगर इतने कम नहीं मिले के वोह सब फ़ैल हो जाएं।_
_यह अहादीस ज़ईफ़ तो है, इन में दाफ (नुक्स) तो है मगर इस दरज्जे का नुक्स नहीं के ये फ़ैल हो जाएं (कुबूल ही न की जाएं)। जिन बच्चों को 35 पासिंग मार्क्स से कम मार्क्स मिले उनको F ग्रेड मिला, वोह सब फ़ैल हो गए, यह उसूले हदिस में मोज़ू अहादीस कहलाएगी। या’नि इतनी ज़ईफ़ हदीस हो गयी कि इन को मोज़ू कहा गया। या’नि इतने कम मार्क्स मिले के यह फ़ैल होगी।_
*A+ = सहीह हदीस, A = हसन हदीस, B+, B, C, D = ज़ईफ़ हदीस, F = मोज़ू हदीस।*
*Conclusion :*
_जिन बच्चों को 70 से का मार्क्स मिले क्या वोह फ़ैल हो गए जब कि पासिंग मार्क्स 35 मुकर्रर किये गए थे? जवाब है नहीं उनको पासिंग मार्क्स तो मिले है, क्या ये उनको B+, B, C, D ग्रेड मिला वोह ज़ईफ़ अहादीस हो गई। पास तो 70 से कम मार्क्स वाले बच्चे भी हो गए मगर उन्हें A+ या A ग्रेड का मक़ाम नहीं मिला (या’नि वोह अहदीस सहीह हदीस और हसन अहादीस का मक़ाम हासिल न कर पायी क्यूं कि अपे राविओं में से किसी रावी में कोई नुक्स होने की बिना पर)। याद रहे कि रविओं में से किसी रावी में नुक्स होने का मतलब यह है कि वोह सहीह और हसन अहदिस कि शराइत पर पूरा नहीं उतरा। पासिंग मार्क्स 35 है तो 35 से 70 मार्क्स तक के बच्चे ज़ईफ़ कहलायेंगे। उससे ज़्यादा मार्क्स वाले बच्चे सहीह और हसन कहलायेंगे, मगर पास तो यह सब बच्चे हो गए। अब जिन-जिन बच्चों के 35 मार्क्स से ज़्यादा मार्क्स आ गए वोह आगे की क्लास में, आगे के स्टैण्डर्ड में एक्सेप्टेड हैं। वैसे ही वोह तमाम ज़ईफ़ अहादीस जो मोज़ू के दरज्जे को नहीं पहुंची वोह सब Acceptable हैं। जिन-जिन बच्चों के 35 मार्क्स से कम आये वोह फ़ैल हो गए वैसे ही ज़ईफ़ से निचले दरज्जे की अहादीस मोज़ू हो गई वोह फ़ैल हो गए। जिस तरह फ़ैल बच्चे आगे की क्लास में acceptable नहीं वैसे ही मोज़ू अहादीस भी acceptable नहीं। अब कोई जाहिल हर ज़ईफ़ हदीस को फ़ैल कहे, उसको रद्द करे, बिना उसूले हदिस को जाने, पहचाने, समझें और लोगों को यही सिखाता और कहता फिरे उससे बड़ा ज़ालिम उसूले हदीस में और कौन होगा?!!!_
*उसूले हदीस और ज़ईफ़ हदीस के बारे में 3 मिसाले हमने पढ़ी, अब इसी उन्वान पर हम आगे जारी रखते हुवे इमामों (सिर्फ अहले सुन्नत के इमाम नहीं बल्कि वोह इमाम जिन को पूरा अरब और अज़म मानता है या’नि बद्द मज़हब) कि किताबों से हवालों के साथ गुफ्तगू करते हैं :*
_इमाम इब्नु अश्शोह्रोज़ोरी उनकी किताब मुक़दमा इब्नु सलाह यह वोह किताब है जो उलूमे हदीस में सब से बड़ा मर्तबा रखती हैं और इस के बाद आने वाली तमाम उसूले हदीस की जितनो किताबे हैं वोह सब इसी किताब पर दारोमदार रखती हैं। या’नि हर इमाम, वोह इब्नु सलाह अपनी किताब मुक़दमा इब्नु सलाह कि शुरुआत में फरमाते हैं कि “अहले इल्म के नज़दीक (हदीस का इल्म रखने वालों के नज़दीक) अहादीस तीन किस्मों की होती है (या’नि हदीस के तीन किस्में हैं) सहीह हदीस, हसन हदीस और ज़ईफ़ हदीस।” इमाम इब्नु सलाह के सिर्फ इसी जुमले ने तमाम मसाइल हल कर दिए। उन्होंने हदीस कि तीन किस्में बयान कर दी और उन्होंने सहीह को भी हदीस कहा, हसन को भी हदीस कहा और ज़ईफ़ को भी हदीस कहा।:_
*इमाम इब्नु सालेह (Biggest Name In Usool-E-Hadith) उन्होंने ज़ईफ़ को हदीस से खारिज नहीं किया। इस का मतलब सहीह भी हदीस हुई, हसन भी हदीस हुई और ज़ईफ़ भी हदीस हुई। अब अगर कोई कहे कि “यह हदीस ज़ईफ़ है में नहीं मानता” तो उस शख्स को हमें कहना चाहिए कि “तू पागल का बच्चा है, तू उल्लू का पठ्ठा है, जाहिल है बल्कि अज़्हल है, अश्ल में तूने उसूले हदीस को न पढ़ा हैना जाना है। अरे नादान उसूले हदीस की तमाम किताबों की शुरुआत ही यहाँ से होती है, सहीह भी हदीस, हसन भी हदीस पोर ज़ईफ़ भी हदीस। हर इमाम ने ज़ईफ़ को हदीस ही गिना है, तू कौन है कहने वाला कि ज़ईफ़ है मैं नहीं मानता?” आज के दौर में जो ज़ईफ़ को हदीस से खारिज करने बैठा है वोह खुद खावारिज़ हैं। हमने सिर्फ एक किताब का हवाला दिया है जो सब उसूले हदीस कि किताबों में सब से मोअतबर है। अल-हम्दोलिलाह ऐसे कई और हवाले दुसरे इमामों के इसी टॉपिक पर मौजूद हैं।*
*इमाम इब्नु सलाह किताब : मा’रिफ़तुल मग्लुब,*
*इमाम सुयूती किताब : मजमा’उल फतावा,*
*हाफ़िज़ इब्ने कषीर किताब : अल-बैसुल हसीस,*
*इमाम नववी किताब : किताबुल इरशाद।*
_यह वोह सब आलिम हैं जिन को पूरा अरब व अजम मानता हैं, जिनकि किताबें पूरी दुनिया में पढ़ी जाती हैं, बद्द-मज़हब की तरह यह कोई अहले सुन्नत कि जेब से निकली हुई बातें नहीं हैं। इन तमाम उलमाओने ज़ईफ़ अहादीस के बारे में अपनी इन किताबों में (जिनके नाम ऊपर दीए हैं) यही बात फरमाइ है। लिखते हैं कि “अगर ज़ईफ़ हदीस मोज़ू आ जाए तो मोज़ू को फेंक दिया जाता है और ज़ईफ़ हदीस (जो मोज़ू के दरज्जे की नहीं होती) में नरमी बरती जाती हैं। (मोज़ू कहते हैं उन रिवायतों को जिनके मतन में ये 2 दो चीजें हो 1 हलाल और हराम का हुक्म साबित हो रहा हो, 2 या अल्लाह तआला की सिफात जिस पर ईमान और कुफ्र का मदार है अक़ाईद पर) अगर यह दो चीजें साबित नहीं हो रही हैं और इसके निचे फ़ज़ाइल हैं, मनाक़िब हैं, फ़ज़ाइलों आमाल हैं वगैरह … ज़ईफ़ हदीस में हैं तो उस हदीस की सनद में और रिवायत में नरमी बरती जाए, अगर उस ज़ईफ़ हदीस ही को बयां किया जाए (जो मोज़ू नहीं) और उसको जो दाफ है (रिवायत में कमज़ोरी है) उस दाफ को बयान न भी किया जाए तो भी कोई हर्ज़ नहीं। सिर्फ कुफ्र और ईमान का मसअला आ जाए तो वोह मोज़ू हदीस कुबूल न होगी। अहकामे शरीअत भी ज़ईफ़ अहादीस से साबित किये जा सकते हैं।” सब इमामों ने यही कहा। तमाम अइम्मा का कौल है इस पर इज्मा है। और चरों मस्लक के इमामोने ज़ईफ़ अहादीस से अहकामे शरीअत भी साबित किये हैं। हनफी, शाफ़ई, हम्बली और मालिकी (इसके हवाले आखिर में दिए जाएंगे)। जब ज़ईफ़ अहादीस से शरीअत साबित हो सकती हैं तो क्या अल्लाह तआला के महबूब बन्दों की अज़मत बयान नहीं हो सकती?!_
*इससे पता चला कि इमाम बुखारी का मज़हब ज़ईफ़ अहादीस को कुबूल और जाईज़ करना है बल्कि मुस्तहब है। अपनी एक और किताब “अल जुज्फिल्बे बिस्मिल्लाह” में भी इमाम बुखारी ने ज़ईफ़ अहादीस को रिवायत किया है। सुवाल ये उठते हैं कि सहीह बुखारी में इमाम बुखारी ने सहीह अहादीस के अलावा और कोई हदीस क्यूं नहीं की?*
_जवाब सुन लो : सहीह बुखारी में ज़ईफ़ अहादीस को इमाम्म बुखारी ने रिवायत नहीं किया क्यूं कि वो एक मयार (अहादीस का लेवल) बाँध चुके थे कि वोह अपनी इस किताब सहीह बुखारी में सिर्फ सहीह अहादीस ही दर्ज करेंगे। और रही हसन या ज़ईफ़ अहादीस की बात तो वोह अपनी दूसरी किताबों में दर्ज करेंगे। अगर इमाम बुखारी के नज़दीक ज़ईफ़ अहादीस “UNACCEPTABLE” होती तो क्या इमाम बुखारी अपनी दूसरी किताबों में *“UNACCEPTABLE”* चीज़ को दर्ज करते या उनसे अक़ीदा साबित करते? जवाब भी हरगीज़ नहीं। इस का मतलब इमाम बुखारी के नज़दीक ज़ईफ़ अहादीस को लेना और उस पर हुक्मों को वाज़ेह करना दोनों अमल मुस्तहब है।_
_अब सोचने वाली बात यह है कि यह बद्द-अक़ीदगी बद्द-दिनी कहाँ से आई कि जाहिलों के दिमाग़ में सिर्फ सहीह हदीस कि बात होगी और किसी हदीस को कुबूल नहीं किया जाएगा? जो अहादीस कि तारीख में 1200 साल में किसी के पास यह खयाल न था अब कहाँ से आ गया? जवाब है कि यह ख़याल शैतान ने डाला है अपने चेलों के ज़हेन में। इसे कहते हैं बिदअत। यह ख़याल लोगों के दिलों में डालने की वज़ह यह है कि जहाँ आका عَلَيْهِالصَّلوةُوالسَّﻻَم की शान आ जाये उस को मानना नहीं और न मानने का तरीका यह है कि हदीस को ज़ईफ़ कह दो। इस दौर के सब से बड़े फ़ितनों में से यह एक फितना जो पैदा हुआ है कि यही कह दिया जाता है कि “यह हदीस ज़ईफ़ है मैं नहीं मानता। हम सिर्फ सहीह हदीस को मानते हैं, दिखाओं सहीह हदीस में कहा लिखा है वगैरह_
*कुछ लोग हदीस को ज़ईफ़ कह कर रद्द कर देते हैं जिनके ईमान ही सहीह नहीं होते। यह लोग ऐसा इस लिए करते हैं कि अगर कहीं हदीस में हुज़ूर पूर नूर मुहम्मद मुस्तफा صَلَّىاللهتَعَالىٰعَلَيْهِوَالِهوَسَلَّمकी अज़मत आ जाये, आका عَلَيْهِالصَّلوةُوالسَّﻻَمके मोजिज़ात आ जाए, कमालात आ जाए, इल्मे मुस्तफा صَلَّىاللهتَعَالىٰعَلَيْهِوَالِهوَسَلَّم की वुसअत आ जाए, आका عَلَيْهِالصَّلوةُوالسَّﻻَمके पास्ट और फ्यूचर को देखना आ जाए, आका عَلَيْهِالصَّلوةُوالسَّﻻَمकी शफाअत आ जाए, वसीला आ जाए, फ़ज़ाइल आ जाए, आका عَلَيْهِالصَّلوةُوالسَّﻻَمका इस्तेगासा आ जाए, इन अहादीस में सहाबा किराम رِضْوَانُاللهِتَعَالىٰعَلَيْهِمْاَجْمَعِيْنَके मनाक़िब आ जाए, और खास तौर पर अहले बैते अतहार سلام لله عليهمफ़ज़ाइल और मनाक़िब आ जाए, मौला अली शेरे खुदा كَرَّمَاللهُتَعَالىٰوَجْهَهُالْكَرِيْمके फ़ज़ाइल और मनाक़िब आ जाए, मन कुन्तो मौला फ़-हाज़ा अलियुल मौला आ जाए तो फिर बद्दिनों के अन्दर का शैतान भड़क उठता है कि अली كَرَّمَاللهُتَعَالىٰوَجْهَهُالْكَرِيْمको इल्म का दरवाज़ा और मन कुन्तो मौला क्यों कहा गया।*
*अगर ऐसी कोई बात हदीस आ जाए तो कहते हैं हदीस ज़ईफ़ है। ये बदबख्त विलायते अली كَرَّمَاللهُتَعَالىٰوَجْهَهُالْكَرِيْمके मुनकिर अजमते व शाने मुस्तफा صَلَّىاللهتَعَالىٰعَلَيْهِوَالِهوَسَلَّمके मुनकिर, अहले बैते अतहार سلام لله عليهمकी शान के मुनकिर, सहाबा किराम رِضْوَانُاللهِتَعَالىٰعَلَيْهِمْاَجْمَعِيْنَकी शान के मुनकिर, औलिया अल्लाह رَحْمَةُاللهِتَعَالىٰعَلَيْهِمْاَجْمَعِيْنकि शान के मुनकिर और अहले सुन्नत व जमात मुनकिर हैं जो शैतान के बहकावे में आ कर और खुद तहकीक न कर के गुमराह, बेअदब, गुस्ताख हो चुके हैं, जहालत की इन्तहा है अज़्हल बन चुके हैं।*
*_By Muhammad Zeeshan Rifai Lucknow_*
_हदीस का मतन (text) ज़ईफ़ नहीं होता बल्कि उसकी सनद ज़ईफ़ होती है, या’नि तीन, चार या एक या दो रावियों में से किसी एक रावी में कोई नुक्स या खामी पा जाए तो हदिस ज़ईफ़ कहलाती है उलमाए किराम ने 39 किस्में बयान की हैं ज़ईफ़ हदीसों के और कुछ उल्माओं के मुताबिक़ 79 किस्में हैं।_
*किसी ज़ईफ़ हदीस को सुन कर यह कह देना कि यह ज़ईफ़ है और उसे सिरे से खारिज कर देना या रद्द कर देना उसूले हदीस में इस से बड़ी जहालत की बात हो ही नहीं सकती, और यह ऐसी बिदअत है जो सिर्फ इस जमाने के so called आलिमों और मुल्ला फैला रहे हैं। जिन्होंने उसूले हदीस की ABCD भी नहीं पढ़ी है और यह लोग सहीह सहीह (Authentic) का राग अलापते रहते हैं। अगर कोई हदीस इनके अक़िदे के खिलाफ हो तो वोह इनके लिए ज़ईफ़ हो जाती है, किसी हदीस में ज़मते मुस्तफ़ा صَلَّىاللهتَعَالىٰعَلَيْهِوَالِهوَسَلَّم की बात हो या अज़मते सहाबाए किराम رِضْوَانُاللهِتَعَالىٰعَلَيْهِمْاَجْمَعِيْنَ की बात हो या अज़मते औलियां अल्लाह رَحْمَةُاللهِتَعَالىٰعَلَيْهِمْاَجْمَعِيْن कि बात हो तो वोह इनके नजदीक ज़ईफ़ हो जाती है। ऐसे लोगों के ईमान ही ज़ईफ़ होते हैं।*
*आओ हम मिसाल से समझते हैं कि ज़ईफ़ हदीथ क्या है :*
_पहली बात यह कि हदीस का मतन ज़ईफ़ नहीं होता बल्कि उसकी सनद ज़ईफ़ होती है। हदीस कि रिवायत करने वालों में कोई नुक्स हो, जैसे उसने कभी ज़िंदगी में झूठ बोला हो, उसको कभी कभी झूठ बोलते पाया गया हो, या उसकी याददास्त कमज़ोर हो वगैरह। अगर किसी रावी का कभी कभी मज़ाक में ही सही झूठ बोलना साबित हो तो उससे रिवायत की गयी हुई हदीस इमाम के नज़दीक ज़ईफ़ हो सकती है। इस लिए इमामने उसको “ज़ईफ़” लिख दिया तो आजके बिदअती लोग उसको सिरेसे हे नकार देते हैं यह कह कर के यह ज़ईफ़ हदीस है। यह लोग हर ज़ईफ़ हदीस को मोज़ू (unacceptable) समझ लेते है।_
_मोज़ु भी हदीस की एक किस्म है। अगर हदीस मोज़ू होती तो वोह इमाम जिन्होंने हदीस को ज़ईफ़ लिखा वोह लिखते ही नहीं बल्कि उससे मोज़ू हदीस ही कह देते। ज़ईफ़ इस हदीस को कुछ हद तक कुबूल किया जा सकता है।_
*मिसाल अहादिसे ज़ईफ़ :*
_(1) ज़ईफ़ और मोज़ू हदीस को कोई बीमारी समझ लो, बिमेरी भी इंसान के बदन में के एक नुक्स है जैसे बुखार, झुखाम,कैंसर, टी.बी वगैरह या’नि हर बीमारी एक जैसी नहीं होती। किसी ज़ईफ़ हदीस में सिर्फ ज़ुखाम जितना नुक्स होता है किसी में बुखार जितना निक्स होता है तो किसी में सरदर्द जितना नुक्स होता है।_
_अब मोज़ू हदीस वोह है जो कैंसर (या कोई ऐसी बिमारी के जिसका इलाज हकीमों के पास न हो जैसे एक हे H.I.V) है जिसका इलाज़ नहीं और जो लास्ट दर्जे का नुक्स है। तो क्या हम ज़ुखाम और कैंसर के मरीज़ को एक जैसा समझते हैं? क्या मरीज़ के सर में हल्का सा दर्द हो और किसी मरीज़ को Brain tumor हो वोह दोनों यकसा हैं? क्या तुम दोनों मरीजों को एक जैसी ट्रीटमेंट दोगे? नहीं ना, तो हर ज़ईफ़ हदीस को (बुखार के मरीज़ की तरह) मोज़ू हदीस की तरह (कैंसर के मरीज़ की तरह) क्यूं कहा (treat-इलाज़) जाता है?_
*तो नादानों हर ज़ईफ़ हदीस और मोज़ू हदीस को एक जैसा समझ कर “ज़ईफ़” हदीस कह कर रद्द कैसे कर सकते हो? और सहीह-सहीह की तस्बीह क्यूँ पढ़ते रहते हो? पहले अहादीस के उसूलों को समझों। जसी तरह ज़ुज्खाम के मरीज़ का इलाज़ हो सकता है वैसे ही बेशुमार अहादीस ऐसी होती है जो किसी इमाम के पास ज़ईफ़ है मगर किसी दुसरे इमाम के पास किसी और तुर्क (ज़रिये) से आ कर वोह सहीह या हसन हदीस हो सकती है। सहीह और हसन अव्वल दर्जें की अहादीस हैं जिनको अव्वल दर्जा मिलेगा, ज़ईफ़ हदीस हसन हदीस के बाद वाले दर्जे की हदीस है तो उससे उस को उस के बाद दर्जा मिलेगा।*
*दूसरी मिसाल अहादिसे ज़ईफ़ :*
_(2) दो इलाज़ करने वाले शख्स है अब्दुल्लाह और समीर। अब्दुल्लाह के पास M.D या M.B.B.S की डिग्री है और समीर के पास कोई भी डिग्री नहीं है, मगर समीर भी मरीजों का इलाज़ कर रहा है। अब एक सरदर्द का मरीज़ अब्दुल्लाह के पास आ गया और सने मरीज़ को एक दवाई दी पेरासिटामोल, अब वही मरीज़ यकसा तकलीफ के लिए समीर के पास गया जो Qualified नहीं है मगर उसे इलाज़ पता है कि क्या करना चाहिए। तो दवाई अब्दुलाह और समीर ने एक ही दी मगर एक के पास डिग्री है और और दुसरे के पा नहीं है। तो जिसके पास डिग्री नहीं है वोह ज़ईफ़ है और जिसके पास डिग्री है वोह सहीह है। अब समीर Qualified नहीं है तो उसकी दी हुई दवाई ज़ईफ़ हो गई, अब्दुल्लाह Qualified है तो उसकी दवाई सहीह हो गई, हालां कि दवाई दोनों की यकसां है।_
_उसी तरह हदीस ज़ईफ़ हो जाती है क्यों कि उसके रावी के पास डिग्री नहीं है (सहीह हदीस की शर्तों में से किसी शर्त पर वोह खरा नहीं उतरता तो वोह Unqualified हो गया) मगर हदीस वोह भी सहीह रिवायत कर रहा है।_
*बिना डिग्री वाला एउर ज़ईफ़ रावी की वजह से दवाई और रिवायत ज़ईफ़ हो गई मगर दावा और हदीस दोनों एकदम सहीह दी। एक के पास डिग्री थी और वोह Qualified था तो उसे M.B.B.Sकह दिया और जिसके पास डिग्री नहीं थी जो Unqualified तो उसे Comounder कह दिया। वैसे ही जिस रावी में कोई ऐब नहीं था (जो सहीह अहादीस की शराईत पर पूरा उतरता था) उसकी रिवायत की गई हुई हदीस सहीह होगी और जो सहीह या हसन अहादीस की शर्तों पर पूरा नहीं उतरता था उसकी रिवायत की गई हदीस ज़ईफ़ हो गई।*
_अब एक और शख्स है सफ्वान। इतना Unqualified है कि उसने कभी किसी डॉक्टर से ये भी नहीं सुना के कौनसी तकलीफ में कौनसी दवाई दी जाए और वोह बिलकुल गलत दवाई दे रहा है, तो उसकी दवाई उस दर्जे की ज़ईफ़ हो गई कि वोह मोज़ू होगी जिससे रद्द करने में भलाई है। उसे कुबूल नहीं किया जा सकता। या’नि ऐसी कोई रिवायत हो जिसमे हलाल और हराम का मस’अला हो या जसी रिवायत में अल्लाह तआला की सिफात जिस पर ईमान और कुफ्र का मदार है वोह मोज़ू हदीस कहलाएगी। उसे कुबूल नहीं किया जा सकता। यह सब उसूले हदीस कि बाते है जिसे हमें समझना चाहिए और अपने बुरे अकीदे को बचाने के लिए ऐसे ही हवा में बातें नहीं करनी चाहिए।_
*तीसरी मिसाल अहादिसे ज़ईफ़ :*
_(3) मिसाल के तौर पर स्कूल या कोलेज के रिजल्ट और उसूले हदीस को ले लो। क्लास में जो बच्चों का रिजल्ट 90 से 100 मार्क्स तक आया उनको A+ ग्रेड मिला, उसूले हदीस में वोह हदीस सहीह हो गई उन्हें A+ ग्रेड मिला। दुसरे बच्चों को 70 से 89 तक मार्क्स मिले तो 100 में से उसको A ग्रेड मिला, उसूले हदीस के ग्रेड में वोह हदीस हदीसे हसन हो गई। अब जिन बच्चों को 69 से 35 (35 Passing Marks) तक मार्क्स मिले उनको B+, B, C,D ग्रेड मिले, या’नि यह सब उसूले हदीस में हदीसे ज़ईफ़ हो गई। 70 से 35 मार्क्स वाले बच्चों को A+ और A ग्रेड वाले बच्चों से कम मार्क्स तो मिले मगर इतने कम नहीं मिले के वोह सब फ़ैल हो जाएं।_
_यह अहादीस ज़ईफ़ तो है, इन में दाफ (नुक्स) तो है मगर इस दरज्जे का नुक्स नहीं के ये फ़ैल हो जाएं (कुबूल ही न की जाएं)। जिन बच्चों को 35 पासिंग मार्क्स से कम मार्क्स मिले उनको F ग्रेड मिला, वोह सब फ़ैल हो गए, यह उसूले हदिस में मोज़ू अहादीस कहलाएगी। या’नि इतनी ज़ईफ़ हदीस हो गयी कि इन को मोज़ू कहा गया। या’नि इतने कम मार्क्स मिले के यह फ़ैल होगी।_
*A+ = सहीह हदीस, A = हसन हदीस, B+, B, C, D = ज़ईफ़ हदीस, F = मोज़ू हदीस।*
*Conclusion :*
_जिन बच्चों को 70 से का मार्क्स मिले क्या वोह फ़ैल हो गए जब कि पासिंग मार्क्स 35 मुकर्रर किये गए थे? जवाब है नहीं उनको पासिंग मार्क्स तो मिले है, क्या ये उनको B+, B, C, D ग्रेड मिला वोह ज़ईफ़ अहादीस हो गई। पास तो 70 से कम मार्क्स वाले बच्चे भी हो गए मगर उन्हें A+ या A ग्रेड का मक़ाम नहीं मिला (या’नि वोह अहदीस सहीह हदीस और हसन अहादीस का मक़ाम हासिल न कर पायी क्यूं कि अपे राविओं में से किसी रावी में कोई नुक्स होने की बिना पर)। याद रहे कि रविओं में से किसी रावी में नुक्स होने का मतलब यह है कि वोह सहीह और हसन अहदिस कि शराइत पर पूरा नहीं उतरा। पासिंग मार्क्स 35 है तो 35 से 70 मार्क्स तक के बच्चे ज़ईफ़ कहलायेंगे। उससे ज़्यादा मार्क्स वाले बच्चे सहीह और हसन कहलायेंगे, मगर पास तो यह सब बच्चे हो गए। अब जिन-जिन बच्चों के 35 मार्क्स से ज़्यादा मार्क्स आ गए वोह आगे की क्लास में, आगे के स्टैण्डर्ड में एक्सेप्टेड हैं। वैसे ही वोह तमाम ज़ईफ़ अहादीस जो मोज़ू के दरज्जे को नहीं पहुंची वोह सब Acceptable हैं। जिन-जिन बच्चों के 35 मार्क्स से कम आये वोह फ़ैल हो गए वैसे ही ज़ईफ़ से निचले दरज्जे की अहादीस मोज़ू हो गई वोह फ़ैल हो गए। जिस तरह फ़ैल बच्चे आगे की क्लास में acceptable नहीं वैसे ही मोज़ू अहादीस भी acceptable नहीं। अब कोई जाहिल हर ज़ईफ़ हदीस को फ़ैल कहे, उसको रद्द करे, बिना उसूले हदिस को जाने, पहचाने, समझें और लोगों को यही सिखाता और कहता फिरे उससे बड़ा ज़ालिम उसूले हदीस में और कौन होगा?!!!_
*उसूले हदीस और ज़ईफ़ हदीस के बारे में 3 मिसाले हमने पढ़ी, अब इसी उन्वान पर हम आगे जारी रखते हुवे इमामों (सिर्फ अहले सुन्नत के इमाम नहीं बल्कि वोह इमाम जिन को पूरा अरब और अज़म मानता है या’नि बद्द मज़हब) कि किताबों से हवालों के साथ गुफ्तगू करते हैं :*
_इमाम इब्नु अश्शोह्रोज़ोरी उनकी किताब मुक़दमा इब्नु सलाह यह वोह किताब है जो उलूमे हदीस में सब से बड़ा मर्तबा रखती हैं और इस के बाद आने वाली तमाम उसूले हदीस की जितनो किताबे हैं वोह सब इसी किताब पर दारोमदार रखती हैं। या’नि हर इमाम, वोह इब्नु सलाह अपनी किताब मुक़दमा इब्नु सलाह कि शुरुआत में फरमाते हैं कि “अहले इल्म के नज़दीक (हदीस का इल्म रखने वालों के नज़दीक) अहादीस तीन किस्मों की होती है (या’नि हदीस के तीन किस्में हैं) सहीह हदीस, हसन हदीस और ज़ईफ़ हदीस।” इमाम इब्नु सलाह के सिर्फ इसी जुमले ने तमाम मसाइल हल कर दिए। उन्होंने हदीस कि तीन किस्में बयान कर दी और उन्होंने सहीह को भी हदीस कहा, हसन को भी हदीस कहा और ज़ईफ़ को भी हदीस कहा।:_
*इमाम इब्नु सालेह (Biggest Name In Usool-E-Hadith) उन्होंने ज़ईफ़ को हदीस से खारिज नहीं किया। इस का मतलब सहीह भी हदीस हुई, हसन भी हदीस हुई और ज़ईफ़ भी हदीस हुई। अब अगर कोई कहे कि “यह हदीस ज़ईफ़ है में नहीं मानता” तो उस शख्स को हमें कहना चाहिए कि “तू पागल का बच्चा है, तू उल्लू का पठ्ठा है, जाहिल है बल्कि अज़्हल है, अश्ल में तूने उसूले हदीस को न पढ़ा हैना जाना है। अरे नादान उसूले हदीस की तमाम किताबों की शुरुआत ही यहाँ से होती है, सहीह भी हदीस, हसन भी हदीस पोर ज़ईफ़ भी हदीस। हर इमाम ने ज़ईफ़ को हदीस ही गिना है, तू कौन है कहने वाला कि ज़ईफ़ है मैं नहीं मानता?” आज के दौर में जो ज़ईफ़ को हदीस से खारिज करने बैठा है वोह खुद खावारिज़ हैं। हमने सिर्फ एक किताब का हवाला दिया है जो सब उसूले हदीस कि किताबों में सब से मोअतबर है। अल-हम्दोलिलाह ऐसे कई और हवाले दुसरे इमामों के इसी टॉपिक पर मौजूद हैं।*
*इमाम इब्नु सलाह किताब : मा’रिफ़तुल मग्लुब,*
*इमाम सुयूती किताब : मजमा’उल फतावा,*
*हाफ़िज़ इब्ने कषीर किताब : अल-बैसुल हसीस,*
*इमाम नववी किताब : किताबुल इरशाद।*
_यह वोह सब आलिम हैं जिन को पूरा अरब व अजम मानता हैं, जिनकि किताबें पूरी दुनिया में पढ़ी जाती हैं, बद्द-मज़हब की तरह यह कोई अहले सुन्नत कि जेब से निकली हुई बातें नहीं हैं। इन तमाम उलमाओने ज़ईफ़ अहादीस के बारे में अपनी इन किताबों में (जिनके नाम ऊपर दीए हैं) यही बात फरमाइ है। लिखते हैं कि “अगर ज़ईफ़ हदीस मोज़ू आ जाए तो मोज़ू को फेंक दिया जाता है और ज़ईफ़ हदीस (जो मोज़ू के दरज्जे की नहीं होती) में नरमी बरती जाती हैं। (मोज़ू कहते हैं उन रिवायतों को जिनके मतन में ये 2 दो चीजें हो 1 हलाल और हराम का हुक्म साबित हो रहा हो, 2 या अल्लाह तआला की सिफात जिस पर ईमान और कुफ्र का मदार है अक़ाईद पर) अगर यह दो चीजें साबित नहीं हो रही हैं और इसके निचे फ़ज़ाइल हैं, मनाक़िब हैं, फ़ज़ाइलों आमाल हैं वगैरह … ज़ईफ़ हदीस में हैं तो उस हदीस की सनद में और रिवायत में नरमी बरती जाए, अगर उस ज़ईफ़ हदीस ही को बयां किया जाए (जो मोज़ू नहीं) और उसको जो दाफ है (रिवायत में कमज़ोरी है) उस दाफ को बयान न भी किया जाए तो भी कोई हर्ज़ नहीं। सिर्फ कुफ्र और ईमान का मसअला आ जाए तो वोह मोज़ू हदीस कुबूल न होगी। अहकामे शरीअत भी ज़ईफ़ अहादीस से साबित किये जा सकते हैं।” सब इमामों ने यही कहा। तमाम अइम्मा का कौल है इस पर इज्मा है। और चरों मस्लक के इमामोने ज़ईफ़ अहादीस से अहकामे शरीअत भी साबित किये हैं। हनफी, शाफ़ई, हम्बली और मालिकी (इसके हवाले आखिर में दिए जाएंगे)। जब ज़ईफ़ अहादीस से शरीअत साबित हो सकती हैं तो क्या अल्लाह तआला के महबूब बन्दों की अज़मत बयान नहीं हो सकती?!_
*इससे पता चला कि इमाम बुखारी का मज़हब ज़ईफ़ अहादीस को कुबूल और जाईज़ करना है बल्कि मुस्तहब है। अपनी एक और किताब “अल जुज्फिल्बे बिस्मिल्लाह” में भी इमाम बुखारी ने ज़ईफ़ अहादीस को रिवायत किया है। सुवाल ये उठते हैं कि सहीह बुखारी में इमाम बुखारी ने सहीह अहादीस के अलावा और कोई हदीस क्यूं नहीं की?*
_जवाब सुन लो : सहीह बुखारी में ज़ईफ़ अहादीस को इमाम्म बुखारी ने रिवायत नहीं किया क्यूं कि वो एक मयार (अहादीस का लेवल) बाँध चुके थे कि वोह अपनी इस किताब सहीह बुखारी में सिर्फ सहीह अहादीस ही दर्ज करेंगे। और रही हसन या ज़ईफ़ अहादीस की बात तो वोह अपनी दूसरी किताबों में दर्ज करेंगे। अगर इमाम बुखारी के नज़दीक ज़ईफ़ अहादीस “UNACCEPTABLE” होती तो क्या इमाम बुखारी अपनी दूसरी किताबों में *“UNACCEPTABLE”* चीज़ को दर्ज करते या उनसे अक़ीदा साबित करते? जवाब भी हरगीज़ नहीं। इस का मतलब इमाम बुखारी के नज़दीक ज़ईफ़ अहादीस को लेना और उस पर हुक्मों को वाज़ेह करना दोनों अमल मुस्तहब है।_
_अब सोचने वाली बात यह है कि यह बद्द-अक़ीदगी बद्द-दिनी कहाँ से आई कि जाहिलों के दिमाग़ में सिर्फ सहीह हदीस कि बात होगी और किसी हदीस को कुबूल नहीं किया जाएगा? जो अहादीस कि तारीख में 1200 साल में किसी के पास यह खयाल न था अब कहाँ से आ गया? जवाब है कि यह ख़याल शैतान ने डाला है अपने चेलों के ज़हेन में। इसे कहते हैं बिदअत। यह ख़याल लोगों के दिलों में डालने की वज़ह यह है कि जहाँ आका عَلَيْهِالصَّلوةُوالسَّﻻَم की शान आ जाये उस को मानना नहीं और न मानने का तरीका यह है कि हदीस को ज़ईफ़ कह दो। इस दौर के सब से बड़े फ़ितनों में से यह एक फितना जो पैदा हुआ है कि यही कह दिया जाता है कि “यह हदीस ज़ईफ़ है मैं नहीं मानता। हम सिर्फ सहीह हदीस को मानते हैं, दिखाओं सहीह हदीस में कहा लिखा है वगैरह_
*कुछ लोग हदीस को ज़ईफ़ कह कर रद्द कर देते हैं जिनके ईमान ही सहीह नहीं होते। यह लोग ऐसा इस लिए करते हैं कि अगर कहीं हदीस में हुज़ूर पूर नूर मुहम्मद मुस्तफा صَلَّىاللهتَعَالىٰعَلَيْهِوَالِهوَسَلَّمकी अज़मत आ जाये, आका عَلَيْهِالصَّلوةُوالسَّﻻَمके मोजिज़ात आ जाए, कमालात आ जाए, इल्मे मुस्तफा صَلَّىاللهتَعَالىٰعَلَيْهِوَالِهوَسَلَّم की वुसअत आ जाए, आका عَلَيْهِالصَّلوةُوالسَّﻻَمके पास्ट और फ्यूचर को देखना आ जाए, आका عَلَيْهِالصَّلوةُوالسَّﻻَمकी शफाअत आ जाए, वसीला आ जाए, फ़ज़ाइल आ जाए, आका عَلَيْهِالصَّلوةُوالسَّﻻَمका इस्तेगासा आ जाए, इन अहादीस में सहाबा किराम رِضْوَانُاللهِتَعَالىٰعَلَيْهِمْاَجْمَعِيْنَके मनाक़िब आ जाए, और खास तौर पर अहले बैते अतहार سلام لله عليهمफ़ज़ाइल और मनाक़िब आ जाए, मौला अली शेरे खुदा كَرَّمَاللهُتَعَالىٰوَجْهَهُالْكَرِيْمके फ़ज़ाइल और मनाक़िब आ जाए, मन कुन्तो मौला फ़-हाज़ा अलियुल मौला आ जाए तो फिर बद्दिनों के अन्दर का शैतान भड़क उठता है कि अली كَرَّمَاللهُتَعَالىٰوَجْهَهُالْكَرِيْمको इल्म का दरवाज़ा और मन कुन्तो मौला क्यों कहा गया।*
*अगर ऐसी कोई बात हदीस आ जाए तो कहते हैं हदीस ज़ईफ़ है। ये बदबख्त विलायते अली كَرَّمَاللهُتَعَالىٰوَجْهَهُالْكَرِيْمके मुनकिर अजमते व शाने मुस्तफा صَلَّىاللهتَعَالىٰعَلَيْهِوَالِهوَسَلَّمके मुनकिर, अहले बैते अतहार سلام لله عليهمकी शान के मुनकिर, सहाबा किराम رِضْوَانُاللهِتَعَالىٰعَلَيْهِمْاَجْمَعِيْنَकी शान के मुनकिर, औलिया अल्लाह رَحْمَةُاللهِتَعَالىٰعَلَيْهِمْاَجْمَعِيْنकि शान के मुनकिर और अहले सुन्नत व जमात मुनकिर हैं जो शैतान के बहकावे में आ कर और खुद तहकीक न कर के गुमराह, बेअदब, गुस्ताख हो चुके हैं, जहालत की इन्तहा है अज़्हल बन चुके हैं।*
*_By Muhammad Zeeshan Rifai Lucknow_*
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